सिन्धु सभ्यता के लेख

 - विपिन कुमार

सिन्धु लिपि के लेखों को पढने वालों में सातवां सवार डा. मधुसूदन मिश्र जी हैं । जैसे सब लोगों ने पढने का दावा किया है, वैसा ही राग ये भी आलाप रहे हैं । पर जहाँ और लोगों ने एक दो पुस्तक लिखकर विराम ले लिया, ये थकते हुए नहीं दिखते । 1996 में लगभग 80-90 पेज की पुस्तक निकली From Indus to Sanskrit. इसमें इन्होंने *  को ष पढने का दावा किया । अगले साल उसी पुस्तक का दूसरा भाग निकला, जिसमें इन्होंने सिन्धु लिपि के अंकात्मक अक्षरों को सजाकर अष्टाध्यायी के माहेश्वर सूत्रों के साथ उनका तालमेल बैठा दिया । इस प्रकार सिन्धु लिपि के मुख्य अक्षरों का एक तिहाई तो पहचान लिया गया । जो पहला अक्षर ष पढा गया था, वह 1500 बार आया है । पाणिनि के धात्वादेः षः सः के आधार पर ष का संस्कृत में दुर्लभ प्रयोग और स का अत्यधिक प्रयोग देखकर ष पढना इन्हें ठीक लगा । इसके अगले साल उसी पुस्तक के तीसरे भाग में इन्होंने एक लेख को त न ष पढ लिया । यह उलटा पढा जाता है और यह वाक्य है त(गर्भ) न( रत्न) ष(पैदा होता है ) । ऋग्वेद में इसका विकृत रूप तनस(सन्तान) मिला । एकाक्षर कोष की सहायता से वाक्य का अर्थ भी ठीक ही निकला क्योंकि सन्तान स्त्री के गर्भ से निकला रत्न ही तो है । इस प्रकार यह भी प्रमाणित हो गया कि ऋग्वेद की भाषा सिन्धु भाषा का परवर्ती रूप है । ऋग्वेद की भाषा यदि दौहित्री है तो सिन्धु घाटी की भाषा उसकी नानी है । तीसरे भाग में तो अन्यान्य अक्षर भी पढ लिए गए क्योंकि वे लेख तीन तरह के अक्षरों में लिखे गए हैं अंकात्मक, पशुचित्र और रेखाचित्र ।

     फिर तो अन्यान्य लेख भी पढने में आ गए और उनकी छाया ऋग्वेद में दीखने लगी । उपर्युक्त तीन अक्षर वाला लेख ही चार तरह से लिखा गया है । एक अन्य लेख ग षु व ण ष ( पौधे उगते हैं पानी जाने देता है ) आगे चलकर यह गच्छ वनस् के रूप में विकसित हुआ । एक लेख श म यो ष अनेक बार आया है । ऋग्वेद में यह है शं योः । व ण ष भी अनेक बार आया है । वेद में वनस् एक गूढ शब्द है । च न ष से चनस् बना है, इसी से चर्ष बना है जो चर्षणि में है । वेद में ये सभी शब्द पत्थर के अँबार बने हुए हैं । एक लेख में ध धे ग्र ष है, जो वेद में दधिक्रा है । मिश्र जी बताते हैं कि विश्वामित्र के गायत्री मन्त्र (तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि) का आधार सिन्धु लेख त ग्र ष र घ है, जिसमें ऋषि ने अपनी ओर से सिर्फ धीमहि जोडा है । एक लेख र बी षु व ण ठ ( आग से जब पानी गरम हुआ तो कमरे में धूँआ छा गया ) तो कहता है कि ये विज्ञान में बहुत आगे बढे हुए थे । वेद में यह लेख ऋबीस वनद् बन कर आया । ऋबीस आजकल की बोरसी है , और वनद् को प्रो. ग्रासमन वन् अद् द्वारा विग्रह कर आग मानते हैं (लकडी खाने वाली)। इसी घटना की चर्चा ऋग्वेद के ऋषि वामदेव करते हैं । अत्रि कुल के लोगों को अश्विनौ ने आग से बचाया था । सिन्धु सभ्यता का युग बडा वैज्ञानिक था, जिसकी धुंधली याद ऋग्वेद के ऋषियों को थी ।

     इन तीनों पुस्तकों के बाद मिश्र जी ने 1.Discovery of Indus, 2. Evolution of the Indus Language and it’s Transition with Sanskrit , 3. Rigveda in the Indus Inscriptions, 4. Indus Aryans and the Vedic Culture, 5. The Early Indus Civilization, 6. The Ur- Sanskrit लिखी है । अन्तिम दो पुस्तकें 2006 की हैं ।

     सिन्धु सभ्यता के लोग सरस्वती नदी को बहते हुए देखते थे, पर उसका नाम नहीं था । वे कहते थे ष र ष( पहाड से निकलती है, समुद्र तक रुक जाती है ) । ऋग्वेद में यही गरजती हुई नदीतमा है । दोनों भाषाओं का अन्तर बताता है कि सिन्धु सभ्यता को वैदिक लोग धरोहर के रूप में याद करते थे । वैदिक लोगों के लिए वह स्वर्ण युग था ।

     सिन्धु घाटी के लेखों का पढना बीच ही में छोडकर मिश्र जी संस्कृत के उद्भव और विकास की ओर मुड पडे, क्योंकि इनकी मुख्य रुचि भाषाविज्ञानपरक है और सिन्धु लेखों की भाषा में इन्हें संस्कृत का बीज दिखाई पड गया । The Evolution of the Indus Language और The Ur- anskrit के बीच इन्होंने सिन्धु सभ्यता सम्बन्धी तीन किताबें लिखीं और कईं लेखों को पढा भी, पर इनका चिन्तन भाषाविज्ञानपरक ही रहा ।

     सिन्धु सभ्यता के सम्बन्ध में इनका विचार है कि नव पाषाण युग से यह सभ्यता उभर कर आ ही रही थी । इनका त न ष पहले दूसरा ही अर्थ रखता था और यह अर्थ आगे भी बदल रहा था । त न ष का पहला अर्थ है पहाड से नदी निकली है । फिर जब नहर निकाले जाने लगे, तो इसका अर्थ हुआ नदी से नहर निकालो । गर्भ से रत्न निकलता है अर्थ तो उस समय था जब शिष्ट समाज वैदिक भाषा बोलने लगा था । ग्राम शब्द सिन्धु भाषा में वाक्य था ग्रा(घूमना फिरना, घूमन्तू जीवन) म ( बन्द करो )। जब ग्राम की स्थापना हुई तो द(तकलीफ) म (दूर करो) = दम (घर) बनाना शुरु हुआ । उनके बनते हुए शब्द ही बता रहे हैं कि सभ्यता कैसे विकसित हो रही थी । चा षु ढो ष (जब खेत सूख जाए तो पानी पटाओ) कहने से पता चलता है कि वे खेती करने लगे थे। उनका चास और ढोस आज भी लोकभाषा में प्रचलित है । गा(पालतू जानवर) व (घर में जा रहे हैं ) ही बाद में गाव हुआ जो गाय का वाचक है । इसका बहुवचन रूप गावष वेद में गावस् था, जिससे गो शब्द की कल्पना हुई । आजकल के कूएँ को वे व(जल) ठ(गोलाकार कुंड मेंढ) कहते थे । बाद में इससे उदक बना । इन्हें ऋतुओं का ज्ञान हो गया था । कहते हैं ल(समय) ठ(घूमता है) । इसी से ऋत बना, फिर उसी से अनृत । भाषा का विकास एक अलग ही मुद्दा है । देहाती बैलगाडी, आटा पीसने की चक्की, तेल निकालने का कोल्हू, तेल का दीया धीरे धीरे इन्हें सबका ज्ञान हो गया था ।

     पर यह एकाक्षरा भाषा इतनी ही बात बताती है । भाषा में जब व्याकरण आया, लम्बे शब्द बनने लगे तो मिट्टी के टुकडों पर उन्हें लिखना संभव नहीं था । वे तालपत्र, भूर्जपत्र पर लिखने लगे । कविता भी करने लगे होंगे । सभ्यता आगे बढी होगी, जिसका संकेत ऋग्वेद के ऋषि दीर्घतमस्, वामदेव आदि करते हैं ।

     पर कभी प्राकृतिक आपदा आयी । सभ्यता को समाप्त हो ही गयी । उनका लिखा  - पढा सबूत भी चला गया ।

प्रथम प्रकाशित 5-12-2010 ई.(मार्गशीर्ष कृष्ण अमावास्या, विक्रम संवत् 2067)

 

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