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Vedic view of Ta Na Sha

- Vipin Kumar

There is one seal where ta na sha has been marked on the seal depicting an elephant. Dr. Madhusudan Mishra is right in interpreting ta na sha as offspring and expansion on the basis of glossary of vedic words. But the view can be expanded on the basis of vedic mantras. In physical world, sun expands itself by it's rays. But in sprituality, one has to make special efforts for sending the rays further. The difficulty is that the rays get lost in the middle. According to modern science, this happens because the rays of light are in different phases with respect to each other. Now there are laser - generated rays which have the same phase and these travel a long distance due to this property. How this can be done in sprituality? Here, it has been said that the path of rays should be specially created by sacrificial procedure, where different aspects of life will be protected by special meters. The other method is that both sun and earth establish their best parts in each other. J.A. Govan has stated in his website that the charge in gross matter is part of energy of sun and this energy compensates the lost symmetry of gross matter. The association of word ta na sha with elephant can be easily justified with the explanation for ghana on the previous pages.

First published : 25-7-2008 AD( Shraavana krishna  ---, Vikrama samvat 2065)

 

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ष का वैदिक दृष्टिकोण

 - विपिन कुमार

          सिन्धु घाटी की चार मुद्राओं - १३६५, २३७४, २६५९ तथा ४४६४ पर अक्षर अंकित हैं इनमें से केवल एक मुद्रा पर हस्ती चित्र के साथ अक्षर अंकित हैं डा. मधुसूदन मिश्र ने ष का निर्वचन तनय, सन्तान अर्थ में किया है जो वैदिक निघण्टु में तनयः, तनयम् शब्दों की अपत्य नामों में परिगणना के अनुकूल ही है तनु धातु का अर्थ भी विस्तार अर्थ में है लेकिन के निर्वचन को ऋग्वेद की ऋचाओं में प्रकट हुए ततम्, ततनम् आदि शब्दों के आधार पर और व्यापक रूप दिया जा सकता है वैदिक ततनम् को इस आधार पर समझा जा सकता है कि भौतिक रूप में सूर्य की रश्मियां सूर्य का विस्तार, ततन हैं जहां तक सूर्य की रश्मियां पहुंचेंगी, वहीं तक सूर्य का विस्तार हो जाएगा ( सं रश्मिभि: ततनः सूर्यस्य - . ..) आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रकाश की रश्मियां तरंग रूप होती हैं प्रकाश की यह तरंगें आगे बढते हुए एक दूसरे से मिलकर समाप्त हो जाती हैं इसका कारण यह है कि इन तरंगों की कला एक सी नहीं होती उदाहरण के लिए, यदि एक निर्धारित समय पर एक तरंग का आयाम अधिकतम है तो दूसरी तरंग का आयाम मध्यम या न्यूनतम हो सकता है, जैसा कि साथ के चित्र में दिखाया गया है तब यह तरंगें परस्पर मिलकर नष्ट हो जाती हैं आधुनिक विज्ञान में लेसर उपकरण द्वारा प्रकाश की तरंगों को उत्पन्न किया गया है जो एक ही कला में होती हैं यह तरंगें एक पुञ्ज के रूप में बहुत दूर तक जाती हैं, नष्ट नहीं होती यह तो भौतिक जगत की बात हुई आध्यात्मिक जगत में तरंगों का विस्तार किस प्रकार करना है, इसका संकेत ऋग्वेद १०.१३० के भाववृत्त संज्ञक सूक्त से मिलता है जिसकी पहली पंक्ति में उल्लेख है कि यज्ञ तन्तुओं द्वारा सब ओर विस्तारित होता है इन तन्तुओं को पितर बुनते हैं इससे यज्ञ का विस्तार, ततन होता है इस सूक्त की तीसरी ऋचा में प्रश्न किया गया है कि जब यह यज्ञ रूपी वस्त्र बुना जा रहा था?, तब प्रमा क्या थी, प्रतिमा क्या थी, निदान क्या था, आज्य क्या था, परिधि क्या थी, छन्द क्या था, प्रउग क्या था, उक्थ क्या था चौथी ऋचा में उत्तर दिया गया है कि अग्नि ने गायत्री छन्द के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया , सविता ने उष्णिक् के साथ, सोम ने अनुष्टुभ उक्थ के साथ, बृहस्पति ने बृहती के साथ, मित्रावरुण ने विराट् के साथ, इन्द्र ने त्रिष्टुप् के साथ, विश्वेदेवों ने जगती के साथ (अन्यत्र कहा गया है कि प्राण का नियन्त्रण गायत्री द्वारा करना है, चक्षु का उष्णिक् द्वारा, प्रजनन का त्रिष्टुप् द्वारा, आदि ) अन्तिम सातवी ऋचा में कहा गया है कि इससे पुराने लोगों द्वारा बनाए गए पथों को देखकर रथी रश्मियों /बागडोर को ग्रहण करता है ऋग्वेद .८३. में कहा गया है कि अथर्वा ने यज्ञों द्वारा सबसे पहले पथ का ततन किया, उसके पश्चात् ही व्रत का पालन करने वाले सूर्य ने वेन को जना उपरोक्त भाववृत्त संज्ञक सूक्त में प्रमा, प्रतिमा आदि क्या हैं, यह विचारणीय है जैमिनीय ब्राह्मण में उल्लेख आता है कि ब्रह्माण्ड में जितने पदार्थ थे, सभी ने अपनी - अपनी श्रेष्ठतम उपलब्धियां सूर्य में स्थापित कर दी उदाहरण के लिए, सूर्य ने आपः से रस, वनस्पतियों से चरथ ग्रहण किया आदि कहा जाता है कि चन्द्रमा में काला भाग दिखाई देता है, वह पृथिवी का भाग है जो पृथिवी ने वहां स्थापित किया है इसी प्रकार पृथिवी पर ऊसर भूमि के रूप में जो श्वेत भाग दिखाई देता है, वह सूर्य का अंश है प्रथम दृष्टि में इन्हें ही प्रमा, प्रतिमा आदि माना जा सकता है वाजसनेयि संहिता में एक यजु में उल्लेख है - माऽसि, प्रमाऽसि, प्रतिमाऽसि - - - (मा माया को कहते हैं - जो मित, परिमित है, जिसका मापन किया जा सकता है) श्री जे.ए.गोवान ने अपनी वैबसाईट में यह उल्लेख किया है कि पृथिवी पर प्रत्येक परमाणु पर जो विद्युत आवेश विद्यमान है, वह सूर्य का अंश है सैद्धान्तिक रूप से यह आवेश एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता को पूरा करता है सैद्धान्तिक रूप से, यह सिद्ध किया गया है कि सममिति नष्ट नहीं होती , तथा कि ब्रह्माण्ड के आरम्भ में यह विश्व सममित था उसके पश्चात् कभी बडा विस्फोट हुआ जिससे यह ब्रह्माण्ड बिखर गया आज हम देखते हैं कि जड पदार्थ सममित नहीं है लेकिन श्री गोवान का कहना है कि विद्युत आवेश के रूप में वह आरम्भिक सममिति अभी भी विद्यमान है, क्योंकि विद्युत आवेश सममित होता है यह कहा जा सकता है कि जिन प्रमा और प्रतिमा शब्दों का उल्लेख आया है, वह पृथिवी द्वारा सूर्य में स्थापित भाग और सूर्य द्वारा पृथिवी में स्थापित भाग हो सकते हैं रथन्तर साम (अभि त्वा शूर नोनुमो इत्यादि ) द्वारा पृथिवी अपना भाग सूर्य में स्थापित करती है और बृहत् साम द्वारा सूर्य अपना भाग पृथिवी में स्थापित करता है ऋग्वेद .. के अनुसार अग्नि अपने भास से रोदसी का ततन करती है ऋग्वेद .. में अग्नि द्वारा ऋत के द्वारा रोदसी का ततनन करने का उल्लेख है ऋग्वेद १०.८०. के अनुसार अग्नि द्युलोक में हव्य का ततनन करती है . .१०५.१२ के अनुसार सूर्य सत्य का ततनन करता है ऋग्वेद .३८.१० में दधिक्रा द्वारा अपने बल से पांच कृष्टियों का ततनन इस प्रकार किया जाता है जिस प्रकार सूर्य का ततनन ज्योvति से होता है इसी प्रकार का उल्लेख . १०.१७८. में भी है यह पांच कृष्टियां(कृष धातु) कौन सी हैं, इस संदर्भ में डा. फतहसिंह का कथन है कि यह पांच ज्ञानेन्द्रियां हो सकती हैं जिनका कर्षण करके उन्हें अन्तर्मुखी बनाया जा सकता है ऋग्वेद .३३. १२ में यम के द्वारा तत की गई परिधि को बुनने का उल्लेख है जिससे अप्सरस से वसिष्ठों और वसिष्ठ(सबसे अधिक बसने वाले, दूर भागने वाले प्राण - डा. फतहसिंह) का जन्म होता है

          ततनम्/ के साथ हाथी के चित्र का क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह शब्द पर टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है विज्ञानमय कोश की ज्योति या भ्रूमध्य की ज्योति का विस्तार निचले स्तरों पर करना है

          एक सिन्धु मुद्रा २५९४ ऐसी भी है जिस पर एक - शृङ्ग मृग का चित्र बना है और अंकित है डा. मधुसूदन मिश्र के अनुसार सिन्धु लिपि की परम्परा में अन्तिम अक्षर    और दोनों के लिए काम करेगा इस प्रकार इस मुद्रा में और दोनों का उल्लेख है इसकी व्याख्या का प्रयत्न की टिप्पणी में किया जाएगा

 

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